सादगी का सफ़र, यूं ही चलता रहा,
वक़्त के साथ साथ, ये बदलता रहा।
पहले थे मिट्टी के दीये और वो छत,
अब ये रोशनी का शहर जलता रहा।
चूल्हे की रोटी थी, सब साथ खाते थे,
अब तो हर एक का चूल्हा अलग सा रहा।
रिश्ते थे गहरे, बातों में मिठास थी,
अब तो सब कुछ बस इंटरनेट पर रहा।
वो पुराने दौर की सादगी कहाँ गई,
जो भी आया यहाँ, बस उलझता रहा।
मगर दिल के कोने में आज भी कहीं,
सादगी का वो रंग, हल्का सा रहा।
वापस बुलाने को हम फिर चले हैं,
इस सफ़र में फिर से, वो सरलता रहा।
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